जैन दर्शन
में पर्यूषण या दशलक्षण पर्व के दिनों में आध्यात्मिक तत्वों की हम आराधना करके अपना
और अपने जीवन मूल्यों का स्पर्श करते हैं। इसकी समाप्ति के ठीक एक दिन बाद विशेष पर्व
मनाया जाता है और वह है क्षमावाणी पर्व।
श्वेतांबर
परंपरा में इसे संवत्सरी के नाम से पुकारते हैं, वहीं दिगंबर परंपरा के अनुयायी इसे
क्षमापर्व या क्षमावाणी पर्व कहकर पुकारते हैं। यह पर्व बहुत धूमधाम से मनाया जाता
है।
दुनिया
में यह अपने तरह का अलग पर्व है, जिसमें क्षमा या माफी मांगी जाती है। इस दिन प्रत्येक
जीव से अपने जाने या अनजाने में किए गए अपराधों के प्रति क्षमा-याचना की जाती है। बधाइयों
के पर्व बहुत होते हैं, जिनमें शुभकामनाएं दी जाती हैं, लेकिन जीवन में एक ऐसा दिन
भी आना चाहिए, जब हम अपनी आत्मा के बोझ को कुछ हल्का कर सकें। अपनी भूलों का प्रायश्चित
करना तथा यह प्रतिज्ञा करना कि दूसरी भूल नहीं करेंगे, यह हमारे आत्मविकास में सहयोगी
होता है। पर्वो के इतिहास में यह पर्व एक अनूठी मिसाल है।
हम अपने
जीवन में कितने ही बुरे कर्म जान-बूझकर करते हैं और कितने ही हमसे अनजाने में हो जाते
हैं। हमारे कर्र्मो या गलतियों की वजह से दूसरों का मन आहत हो जाता है। हमें वर्ष में
कम से कम एक बार इस पर विचार जरूर करना चाहिए कि हमने कितनों को दुख पहुंचाया? सदियों
से चली आ रही दुश्मनी, बैर-भाव की गांठ को बांधकर आखिर हम कहां जाएंगे? जब हम किसी
से क्षमा मांगते हैं तो दरअसल अपने ऊपर ही उपकार करते हैं। अच्छाई की ओर प्रवृत्त होने
की भावना जब हर मानव के चित्त में समा जाएगी, तब मानव जीवन की तस्वीर ही कुछ और होगी।
क्षमा
शब्द क्षम से बना है, जिससे क्षमता शब्द भी बनता है। क्षमता का मतलब होता है सामर्थ्य।
क्षमा का वास्तविक मतलब यह होता है किसी की गलती या अपराध का प्रतिकार नहीं करना। सहन
कर जाने की सामर्थ्य होना यानी माफ कर देना। दरअसल, क्षमा का अर्थ सहनशीलता भी है।
क्षमा कर देना, माफ कर देना बहुत बडी क्षमता का परिचायक होता है। इसलिए नीति में कहा
गया है-क्षमा वीरस्य भूषणम् अर्थात क्षमा वीरों का आभूषण है, कायरों का नहीं। कायर
तो प्रतिकार करता है। प्रतिकार करना आम बात है, लेकिन क्षमा करना सबसे हिम्मत वाली
बात है।
क्षमा
भाव अंतस का भाव है। जो अंतस की शुद्धि के आकांक्षी हैं, वे सभी इस पर्व को मना सकते
हैं। इस शाश्वत आत्मिक पर्व को जैन परंपरा ने जीवित रखा हुआ है। क्षमा तो हमारे देश
की संस्कृति का पारंपरिक गुण हैं। यहां तो दुश्मनों तक को क्षमा कर दिया जाता है। हमारी
संस्कृति कहती है -मित्ती में सव्व भूयेसु, वैर मज्झं ण केणवि। प्राकृत भाषा की इस
सूक्ति का अर्थ है सभी जीवों में मैत्री-भाव रहे, कोई किसी से बैर-भाव न रखे। जैन संस्कृति
ने इस सूक्ति को हमेशा दोहराया है।
ईसा मसीह
का वाक्य है- हे पिता! इन्हें क्षमा कर, क्योंकि ये नहीं जानते, ये क्या कर रहे हैं?
वहीं कुरान (42/43) ने क्षमा को साहसिक मानते हुए कहा - जो धैर्य रखे और क्षमा कर दे,
तो यह उसके लिए निश्चय ही बडे साहस के कामों में से है। बाणभट्ट ने हर्षचरित में क्षमा
को सभी तपस्याओं का मूल कहा है-क्षमा हि मूलं सर्वतपसाम्। महाभारत में कहा है, क्षमा
असमर्थ मनुष्यों का गुण तथा समर्थ मनुष्यों का भूषण है। बौद्धधर्म के ग्रंथ संयुक्त
निकाय में लिखा है- दो प्रकार के मूर्ख होते हैं-एक वे जो अपने बुरे कृत्यों को अपराध
के तौर पर नहीं देखते और दूसरे वे जो दूसरों के अपराध स्वीकार कर लेने पर भी क्षमा
नहीं करते। गुरु ग्रंथ साहिब का वचन है कि क्षमाशील को न रोग सताता है और न यमराज डराता
है।
अनेक धर्मो
और दार्शनिकों ने क्षमा की महिमा को निरूपित किया है। अत: क्षमा दिवस आध्यात्मिक पर्व
है। अंतस के मूलगुण किसी धर्म-संप्रदाय से बंधे नहीं होते, इसीलिए क्षमापर्व सर्वधर्म
समन्वय का आधार है।
साभार : डॉ. ए.के जैन
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