Wednesday, March 23, 2011

धर्म का वास्तविक स्वरूप


अकसर देखा जाता है कि धर्म एवं ईश्वर के विषय में गिने चुने व्यक्तियों को छोडक़र बाकी सभी मनुष्य अंधविश्वास से ग्रस्त होते हैं। प्रस्तुत लेख में अत्यंत संक्षिप्त सरल एवं क्रमबध्द तरीके से धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझाने का प्रयास किया गया है।
1- ब्रह्मांड
2-
स्थूल जगत
3-
सूक्ष्म जगत
4-
ज्ञान
5-
मनुष्य की आध्यात्मिक संरचना
6- मनुष्य पर सूक्ष्म जगत का प्रभाव
7-
विज्ञान एवं आध्यात्म में अन्तर
8-
सूक्ष्म जगत में प्रवेश करने का तरीका
9-
ध्यान
10-
निष्काम एवं सकाम साधनाएं

ब्रह्मांड
हमारे ब्रह्मांड का मुख्य घटक द्रव्य है, इसे हम दो भागों में बांट सकते हैं, 1 सूक्ष्म 2 स्थूल द्रव्य सूक्ष्म रूप में रहता है, जबकि पृथ्वी सहित अन्य ग्रहों एवं उपग्रहों पर सारा द्रव्य स्थूल रूप में रहता है। हमारा सारा ब्रह्मांड गतिशील एवं परिवर्तनशील है हम देखते हैं कि यहां प्रत्येक जीव एवं वनस्पति का जन्म होता है एवं उसका जीवन काल पूरा होने पर मृत्यु होती है, इसी प्रकार निर्जीव पदार्थ बनते एवं नष्ट होते रहते हैं, परंतु वास्तविकता यह नहीं है यहां न किसी का जन्म होता है न किसी की मृत्यु होती है यहां सिर्फ द्रव्य का रूप परिवर्तन होता है। इसी को हम जन्म मृत्यु का नाम दे देते हैं, इसलिए इस संसार को मायावी जगत या नश्वर जगत भी कहते हैं। यह द्रव्य ईश्वर से लेकर स्थूल पदार्थों तक अपना रूप परिवर्तन करने में सक्षम होता है, सूक्ष्म द्रव्य जैसे प्रकाश तरंग शब्द विचार मन आदि स्थूल पदार्थ जैसे सजीव निर्जीव ग्रह उपग्रह आदि, सब इसी द्रव्य से उत्पन्न होते हैं एवं इसी द्रव्य में लीन होते हैं। स्वयं ब्रह्मांड भी इससे अछूता नहीं है इसका भी जन्म एवं मृत्यु होती है हमारा सूर्य अपने अंतिम समय में फैलने लगता है एवं अपने सभी ग्रहों को भस्म कर अपने में लीन कर लेता है इसके बाद इसका ठंडा होना एवं सिकुडना शुरू होता है अंत में यह ब्लेक होल एक कृष्ण विवर में बदल जाता है जिसमें कि असीमित गुरूत्वाकर्षण होता है इतना कि यहां से कोई तरंग या प्रकाश भी परावर्तित नहीं हो सकता अत: इन्हें किसी प्रकार देखा नहीं जा सकता । वैज्ञानिकों ने ब्रह्मांड में इनकी उपस्थिति का पता लगा लिया है, इसी प्रकार जब ब्रह्मांड के सभी सूर्य एवं तारे कृष्ण विवर में परिवर्तित हो जाते हैं तब ये अपने असीमित गुरूत्वाकर्षण के कारण एक दूसरे में समा जाते हैं एवं एक पिंड का रूप ले लेते हैं इस पिंड में ब्रह्मांड का सारा द्रव्य ईश्वर रूप में होता है। इतने अधिक दबाव पर द्रव्य परमाणु या अन्य किसी रूप में नहीं रह सकता इसी को जगत का ईश्वर में लीन होना कहते हैं। जब इस पिंड का संपीडन अपने चरम बिंदु पर पहुंचता है तब इसमें महाविस्फोट होता है इस महा विस्फोट के कारण ब्रह्मांड असंख्य वर्षों तक फैलता रहता है।
स्थूल जगत

स्थूल जगत का सबसे सूक्ष्मतम रूप परमाणु होता है, इस पृथ्वी में इनकी मात्रा सीमित है न तो इन्हें पैदा किया जा सकता है न ही इन्हें नष्ट किया जा सकता है, अब तक पृथ्वी पर 105 विभिन्न गुण धर्म वाले परमाणु खोजे गए हैं इनका गुण धर्म इनके भीतर स्थित प्रोटान न्यूट्रान एवं इलेक्ट्रान की संख्या के ऊपर निर्भर करता है, इनकी संरचना हमारे सौर जगत के समान होती है, जिस प्रकार सूर्य के चारों ओर ग्रह निश्चित दूरी पर रहकर अपनी कक्षा में घूमते हुए सूर्य का चक्कर लगाते रहते हैं ठीक उसी प्रकार परमाणु के भीतर नाभिकीय केन्द्र के चारों ओर इलेक्ट्रान अपनी कक्षा में घूमते हुए नाभिक का चक्कर लगाते रहते हैं । विज्ञान की भाषा में इन्हें तत्व कहते हैं, जैसे हाइड्रोजन, आक्सीजन, लोहा, सोना, तांबा, पारा आदि। हाइड्रोजन परमाणु में एक प्रोटान एक न्यूट्रान एवं एक इलेक्ट्रान होता है इसी प्रकार आक्सीजन परमाणु में प्रत्येक की संख्या 8, लोहा में 26, एवं सोना में 79 होती है यदि लोहा में इनकी संख्या 79 हो जाय तो यह लोहा न रहकर सोना बन जायगा परंतु ऐसा करना अभी विज्ञान के लिए संभव नहीं है। पृथ्वी पर हम जो भी सजीव एवं निर्जीव वस्तुऐं देखते हैं ये सब इन्हीं परमाणुओं के मेल से बनती हैं हमारा शरीर भी इन्हीं परमाणुओं के मेल से बनता है, वायु, जल, जीव, वनस्पति एवं पूरी पृथ्वी सभी कुछ इन परमाणुओं के मेल से ही बना होता है। पृथ्वी पर चाहे जितने जीव एवं वनस्पति पैदा होकर वृध्दि करते रहें, इससे पृथ्वी के भार में कोई फर्क नहीं पडता क्योंकि ये सारे जीव एवं वनस्पति सारा द्रव्य पृथ्वी से ही प्राप्त करते हैं। सारे जीव एवं वनस्पति अपने जीवन काल में आवश्यक आहार भोजन जल एवं वायु भी पृथ्वी से ही प्राप्त करते हैं मनुष्य को सुख एवं वैभव के साधन भी प्रथ्वी से ही प्राप्त होते हैं सिर्फ जीवनी शक्ति हमें सूर्य से प्राप्त होती है एवं जीव की मृत्यु के बाद सब पृथ्वी में ही मिल जाते हैं इसलिए धर्म ग्रन्थों में पृथ्वी को माता एवं सूर्य को पिता का दर्जा दिया गया है। स्थूल जगत के सभी तत्वों की तीन अवस्थाएं होतीं हैं, 1 ठोस 2 द्रव 3 वायु रूप। स्थूल जगत में द्रव्य के ठोस द्रव एवं वायु रूप में प्रत्येक अवस्था के निम्नतम एवं उच्चतम स्तर होते हैं जैसे हम लोहे को गर्म करते हैं तब यह मुलायम होता जाता है एवं अंत में द्रव रूप में बदल जाता है और अधिक गर्म करने पर पतला होकर वायु रूप में बदल जाता है हम एक समय में द्रव्य की एक ही अवस्था को देख सकते हैं अर्थात जब लोहा ठोस रूप में रहता है तब इसके द्रव एवं वायु रूप को नहीं देख सकते एवं जब वायु रूप में होता है तब ठोस एवं द्रव रूप को नहीं देखा जा सकता। हमारे नेत्र स्थूल जगत के लगभग चालीस प्रतिशत भाग को ही देख पाते हैं अतः परमाणुओं को हम खाली आखों से नहीं देख सकते परंतु शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी यंत्र से इन्हें देखा जा सकता है।

सूक्ष्म जगत

सूक्ष्म जगत को समझने से पहिले ईश्वर तत्व को समझ लें जिस प्रकार स्थूल जगत का सूक्ष्मतम रूप परमाणु होता है उसी प्रकार सूक्ष्म जगत का सूक्ष्मतम रूप ईश्वर होता है अर्थात ईश्वर सारे ब्रह्मांड का सूक्ष्मतम रूप होता है। धर्म ग्रन्थों में लिखा है कि ईश्वर एक है उसके रूप अनेक हैं, यहां एक का मतलब संख्या से नहीं है इसका मतलब है कि ईश्वर गुण धर्म का एक ही तत्व है इसे हम स्थूल तत्व आक्सीजन से समझ सकते हैं, पृथ्वी पर आक्सीजन के गुणधर्म वाला एक ही तत्व है इसका मतलब यह नहीं कि पृथ्वी पर आक्सीजन का एक ही परमाणु है आक्सीजन तो सारे वायुमंडल में व्याप्त है, इसके बिना कोई प्राणी दस मिनट भी जीवित नहीं रह सकता इसी प्रकार ईश्वर सारे ब्रह्मांड में व्याप्त है इसके बिना कुछ भी सम्भव नहीं इसलिए कहा जाता है कि ईश्वर की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता । आक्सीजन एवं हाइड्रोजन के संयोग से जल बनता है जल को देखकर हम यह नहीं कह सकते कि इसमें आक्सीजन या हाइड्रोजन नहीं है इसी प्रकार सारे ब्रह्यांड में जो भी द्रव्य जिस रूप में है सभी में ईश्वर व्याप्त है, इसीलिए ईश्वर को सर्वव्यापी कहा गया है

परमाणु नाभिक के केन्द्र में भी ईश्वर स्थित होता है, इसके चारों ओर एक प्रभामंडल होता है जिसे ज्ञान का प्रकाश कहते हैं। इसके बाद अन्य कण स्थित होते हैं परमाणु का सबसे बाहरी कण इलेक्ट्रान होता है जो ज्ञान के प्रकाश से प्रेरणा प्राप्त कर समस्त स्थूल जगत की रचना करता है एवं नष्ट करता है। स्थूल जगत की किसी भी सजीव एवं निर्जीव बस्तु के बनने एवं नष्ट होने में इस कण की प्रमुख भूमिका होती है। यह स्वतंत्र अवस्था में भी रहता है। विज्ञान ने इस कण पर नियंत्रण प्राप्त कर आज इस युग को इलेक्ट्रानिक युग में बदल दिया है। परमाणु में ईश्वर की खोज के लिए भी वैज्ञानिक प्रयोग जारी हैं।

सूक्ष्म एवं स्थूल जगत कोे क्र्रमशः चेतन एवं जड भी कहा जाता है चेतन द्रव्य ज्ञान युक्त होता है एवं जड में ज्ञान नहीं होता। जड उसे कहते हैं जिसका रूप बदलता रहता है या जन्म मृत्यु होती है चाहे वह सजीव हो या निर्जीव। चेतन उसे कहते हैं जिसका रूप नहीं बदलता एवं जो जन्म मृत्यु से मुक्त होता है स्थूल जगत समय की सीमा से बंधा होता है, परंतु सूक्ष्म जगत के लिए समय की कोई सीमा नहीं होती । जिस प्रकार स्थूल जगत में द्रव्य की तीन अवस्थाएं होतीं हैं इसी प्रकार सूक्ष्म जगत में भी द्रव्य की तीन अवस्थाएं होतीं हैं 1- सत् 2- रज् 3- तम् । सूक्ष्म जगत का सारा द्रव्य तरंग रूप में होता है हम सूक्ष्म जगत की एक चीज प्रकाश को ही देख पाते हैं खाली आँखों से हम प्रकाश का भी तीस प्रतिशत भाग ही देख पाते हैं । सूक्ष्म जगत स्थूल जगत की तुलना में बहुत ही अधिक विशाल एवं शक्तिशाली होता है क्योंकि हमारे ब्रह्यांड में सूर्य तारों ग्रहों उपग्रहों के बीच जो भी खाली स्थान है जिसे हम अंतरिक्ष कहते हैं सभी में सूक्ष्म तरंगें प्रवाहित होती रहतीं हैं सभी स्थूल पदार्थों में हमारे शरीर में एवं परमाणुओं की कक्षा के भीतर जो भी खाली स्थान रहता है उसमें भी ये तरंगें विद्यमान रहतीं हैं । द्रव्य की ठोस द्रव एवं वायु रूप अवस्था को जड तथा सत रज एवं तम अवस्था को चेतन कहते हैं। जिस प्रकार स्थूल जगत में हम एक समय में द्रव्य के एक ही रूप को देख पाते हैं इसी प्रकार सूक्ष्म जगत में भी हम एक समय में द्रव्य के एक ही रूप को देख सकते हैं। जब सत का प्रभाव होता है तब रज और तम अवस्था को नहीं देख सकते, जब रज का प्रभाव होता है तब सत और तम को नहीं देख सकते। इसी प्रकार जब तम का प्रभाव होता है तब रज और सत को नहीं देख सकते इसमें भी प्रत्येक अवस्था के निम्नतम् एवं उच्चतम् स्तर होते हैं । सत को ज्ञान रज को क्रियाशीलता एवं तम को अज्ञान कहते हैं। अज्ञान भी ज्ञान का ही एक प्रकार है अतः इसे मिथ्या ज्ञान समझना चाहिए, अज्ञान के बाद जड अर्थात स्थूल अवस्था आ जाती है। ज्ञान युक्त द्रव्य स्वतः क्रिया करने में सक्षम होते हैं परंतु अज्ञानता अर्थात तम का प्रभाव बढने पर ज्ञान कम होता जाता है तम के बाद सूक्ष्म से स्थूल अवस्था अर्थात परमाणु अवस्था में जानेपर लेश मात्र ज्ञान उन्हीं परमाणुओं में रह जाता है जो अपूर्ण अर्थात जिनकी कक्षा में इलक्ट्रान भरने की जगह होती है, होते हैं । अपूर्ण परमाणु स्वतः दूसरे अपूर्ण परमाणु से मिलकर अणु बना लेते हैं अणु बन जाने पर ज्ञान शून्य हो जाता है ये अणु तब तक कोई क्रिया नहीं कर सकते जब तक इन्हें किसी चेतन तत्व द्वारा उर्जा प्राप्त न हो।

ज्ञान
यहां ज्ञान शब्द का प्रयोग किया गया है अतः ज्ञान के संबंध में जान लेना उचित होगा। यहां ज्ञान का मतलब स्कूली या किताबी ज्ञान से नहीं है बल्कि ब्रह्म ज्ञान से है, एक अनपढ व्यक्ति भी ज्ञानवान हो सकता है एवं एक पढा लिखा व्य्क्ति अज्ञानी हो सकता है। पढना - लिखना एक कला है एवं ज्ञान ईश्वरीय चेतना है ज्ञान मनुष्य की खोज नहीं है , मानव जाति का विनाश हो जाने पर भी ज्ञान का विनाश नहीं हो सकता जब तक ईश्वर है एवं ब्रह्मांड हैे, तब तक ज्ञान भी रहेगा। ज्ञान दो प्रकार का होता है, 1 - यथार्थ ज्ञान 2 - मिथ्या ज्ञान । यथार्थ ज्ञान को ज्ञान शब्द से एवं मिथ्या ज्ञान को अज्ञान शब्द से संबोधित करते हैं। यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति मनुष्य को ध्यानावस्था में ही होती है। अज्ञान के प्रभाव से मनुष्य अनित्य में नित्य, दुःख में सुख, अपवित्र में पवित्र एवं अनात्मा में आत्मा समझता है। अर्थात् अज्ञान के प्रभाव से मनुष्य जङ को ही चेतन समझता है।

मनुष्य की आध्यात्मिक संरचना

मनुष्य के उपर सूक्ष्म तथा स्थूल के प्रभाव को समझने से पहले मनुष्य की आध्यात्मिक संरचना को समझ लें। धर्म ग्रन्थों में लिखा है कि मनुष्य का शरीर पंच तत्वों पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश से बना हुआ है, यहां पृथ्वी का मतलब ठोस, जल का द्रव, अग्नि का ऊर्जा, वायु का वायु रूप, आकाश का सूक्ष्म रूप है। पृथ्वी का गुण गंध, जल का रस, अग्नि का रूप, वायु का स्पर्श एवं आकाश का शब्द कम्पन है। इन्हीं गुणों के आधार पर मनुष्य के शरीर में क्रमशः पांच ज्ञानेन्द्रियां होती है।
1 घ्राण अर्थात् नाक 2 रसना अर्थात् जीभ 3 नेत्र 4 त्वचा 5 श्रोत अर्थात् कान।
सूक्ष्म से स्थूल की ओर चलने पर मनुष्य के शरीर को निम्न आठ भागों में बांटा गया है।
1 परमात्मा अर्थात् ईश्वर 2 आत्मा 3 मन 4 बुध्दि 5 प्राण 6 वायु रूप 7 द्रव रूप अर्थात् जल रस रक्त आदि 8 ठोस रूप अर्थात् मांस हड्डी आदि।
क्र्रमांक 1 से 5 तक सूक्ष्म शरीर एवं 6 से 8 तक स्थूल शरीर या परमाणुमय शरीर कहलता है। उपरोक्त क्रमांक 1 से 8 तक के कार्य इस प्रकार हैं।
1.      ईश्वर किसी क्रिया में लिप्त नहीं होता वह सिर्फ दृष्टा होता है परंतु उसके बिना कुछ संभव नहीं।
2.     आत्मा शरीर में ज्ञान स्वरूप होती है एवं मनुष्य इंद्रियों द्वारा किए गए कर्मों का फल भोगती है।
3.     मन मनुष्य के शरीर में सबसे महत्वपूर्ण चीज है इसका काम जानना है एवं यह आत्मा तथा बुध्दि के बीच सेतु का काम करता है गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने कहा है कि''मन एवं मनुष्याणां कारणं बंधमोक्ष्योः'' अर्थात् मनुष्य के शरीर में मन ही बंधन एवं मोक्ष का कारण है। मनुष्य के शरीर में मन एक ऐसा मुकाम है जहां से दो रास्ते विपरीत दिशाओं में जाते हैं एक मोक्ष की ओर ले जाता है दूसरा बंधन की ओर, मोक्ष एवं बंधन को क्रमशः योग एवं भोग, ज्ञान एवं अज्ञान, सुख एवं दुख भी कह सकते हैं।
4.     बुध्दि मनुष्य के मस्तिष्क को संचालित करती है इसका कार्य निर्णय करना एवं कर्मेन्द्रियों को कार्य करने हेतु प्रेरित करना है जब मन किसी कार्य को करने की इच्छा करता है तब बुध्दि हमारे शरीर की सुरक्षा एवं प्रकृति के नियमों को ध्यान में रखते हुए निर्णय करती है कि इच्छित कार्य करने योग्य है या नहीं इसी आधार पर यह कर्मेंन्द्रियों को कार्य करने के लिए प्रेरित करती है, शरीर में मन एवं बुध्दि का द्वंद्व हमेशा चलता रहता है , इस द्वंद्व में यदि मन का पलडा भारी होता है तब मनुष्य अपराध की ओर या प्रकृति से विपरीत कार्यों की ओर मुड ज़ाता है यदि बुध्दि का पलडा भारी होता है तब शरीर में तनाव एवं चिंता उत्पन्न होती है तथा मनुष्य धीरे-धीरे रोगी बन जाता है, असाध्य क्रॉनिक रोगों का। इसके अलावा कोई दूसरा कारण नहीं होता इसी आधार पर होम्योपैथी में मन का इलाज किया जाता है न कि रोग का, निरोग रहने के लिए शरीर में मन एवं बुध्दि का संतुलन आवश्यक है।
5.     प्राण, इसे जीवनी शक्ति भी कहते हैं इसका कार्य सारे शरीर में एवं सूक्ष्म नाडियों में वायु प्रवाह को नियंत्रित करना तथा सूक्ष्म ऊर्जा प्रदान कर शरीर को क्रि्रयाशील रखना है प्राण के निकल जाने पर शरीर मृत हो जाता है एवं प्राण के कमजोर होने पर शरीर कमजोर होता जाता है तथा बीमारियों से लडने की शक्ति समाप्त होने लगती है। मनुष्य के शरीर पांच महाप्राण एवं पांच लघु प्राण होते है महाप्राण को ओजस् एवं लघु प्राण को रेतस् कहते हैं। प्राणायाम् हमें प्राणों पर नियंत्रण रखने की विधि सिखाता है, क्योंकि प्राणों के ऊपर ही शरीर की क्रियाशीलता निर्भर करती है।
6.     वायु से शरीर ऑक्सीजन प्राप्त करता है जिससे शरीर में होने वाली रासायनिक क्रियाओं के लिए ऊर्जा प्राप्त होती है।
7.     द्रव- इसका कार्य शरीर से आवश्यक तत्वों को ग्रहण करना एवं अशुध्द एवं अनावश्यक तत्वों को शरीर से बाहर निकालना है।
8.     ठोस - इसका कार्य रक्त प्रवाह एवं स्नायुओं के लिए सुरक्षित मार्ग बनाना , शरीर के कोमल अंगों को सुरक्षा प्रदान करना तथा शरीर को स्थिर एवं सुडौल बनाए रखना है।


सूक्ष्म एवं स्थूल जगत-2
    
मनुष्य पर सूक्ष्म जगत का प्रभाव
सत रज एवं तम को गुणों के आधार पर सतोगुण रजोगुण एवं तमोगुण कहते हैं, प्रवृत्ति के आधार पर सात्विक राजसिक एवं तामसिक कहते हैं इन तीनों का स्वभाव क्रमशः प्रकाश गति एवं स्थिति है। प्रकृति में उपरोक्त तीनों गुण होते हैं इसलिए प्रकृति को त्रिगुणात्मक कहते हैं।प्रकृति में ये तीनों गुण साथ-साथ चलते हैं जब एक गुण उभरता है तब अन्य दो गुण दबे हुए रहते हैं कोई वस्तु जो स्थिर है उर्जा प्राप्त होने पर इसके परमाणुओं में गति उत्पन्न हो जाती है एवं गति बढने पर इसमें प्रकाश उत्पन्न हो जाता है। जब एक वस्तु स्थिर होती है तब उसमें तमस् प्रधान होता है रजस् एवं सत्व गौण रूप से रहते हैं जब यह वस्तु क्रिया वाली होती है तब इसमें रजस् प्रधान होता है सत्व और तमस् गौण रूप से रहते हैं यही वस्तु जब प्रकाश वाली हो जाती है तब इसमें सत्व प्रधान हो जाता है रजस् और तमस् गौण। जड स्थूल वस्तु परिणामी नित्य होती है अर्थात् इसमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है यह एक पल भी बिना परिवर्तन के नहीं रहती इसमें यह परिवर्तन चेतन द्वारा प्राप्त प्रेरणा के अनुसार होता है।

मनुष्य पर जब सत का प्रभाव होता है तब शरीर में हल्कापन सुख शांति एवं निष्क्रियता उत्पन्न करता है तथा मनुष्य का ईश्वर की ओर झुकाव होता है। जब रजस् प्रधान होता है तब सत् और तम् को दबाकर दुखः वृत्ति को उत्पन्न करता है जिससे मनुष्य की जड वस्तुओं के प्रति आसक्ति बढती है एवं वह उन्हें प्राप्त कर दुखः निवृत्ति एवं सुख प्राप्ति हेतु प्रयास करता है परंतु जड वस्तु स्वयं दुख का कारण होती है जैसे ही वह एक वस्तु को प्राप्त करता है यह अपने साथ अन्य दुखों को ले आती है एवं मनुष्य उस वस्तु से प्राप्त दुखों की निवृत्ति के लिए प्रयास करने लगता है इसी प्रकार जीवन की दौड बढती जाती है और अंत में वह सुख प्राप्ति के लक्ष्य को पूर्ण किए बिना ही मृत्यु को प्राप्त होता है। मान लो सवारी का सुख प्र्राप्त करने के लिए हमने एक वाहन खरीद लिया जिससे सवारी का सुख तो प्राप्त हो जाता है परंतु इसके साथ अन्य दुख एवं भय भी साथ आ जाते हैं जैसे- इसके चलाने के लिए ईंधन एवं रखरखाव के रूप में प्राप्त दुख तथा चोरी दुर्घटना के रूप में प्राप्त भय आदि। इस प्रकार सभी जड वस्तुओं सजीव एवं निर्जीव में आसक्ति जिन पर मनुष्य जीवन भर अपना अािधकार जताता रहता है उसके दुख का मूल कारण होती है।

मनुष्य पर जब तम् का प्रभाव होता है तब शरीर में निष्क्रियता भारीपन आलस्य निद्रा एवं घोर मोह वृत्ति को उत्पन्न करता है जिससे मनुष्य की सुख प्राप्ति की लालसा बढती है परंतु वह उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास नहीं करता एवं अपनी स्थिति के लिए भाग्य को ईश्वर को अन्य व्यक्ति को या संबंधियों को दोषी मानता है एवं घोर दुखः का अनुभव करता है। इसके लिए परिस्थिति किसी प्रकार जवाबदेह नहीं होती , सुख एवं दुख सिर्फ अनुभव की वस्तु है चाहे परिस्थ्िति कैसी भी हो । सत के प्रभाव से भी शरीर में निष्क्रियता उत्पन्न होती है परंतु भारीपन, आलस्य, निंद्रा एवं मोह वृत्ति के स्थान पर हल्कापन, स्फूर्ति, जागृति एवं त्याग भावना होती है सत के प्रभाव से मनुष्य जड वस्तु के अभाव में भी सुख का अनुभव करता है परंतु तम के प्रभाव के कारण जड वस्तुओं के अभाव में घोर दुःख का अनुभव करता है। अतः तम के प्रभाव से मनुष्य सिर्फ दुःख का अनुभव करता है, रज के प्रभाव से सुख और दुख दोनों का अनुभव करता है एवं सत के प्रभाव से सिर्फसुख का अनुभव करता है। जिस प्रकार स्थूल जगत में तापक्रम कम अधिक होने से द्रव्य ठोस , द्रव एवं वायु रूप में बदलता रहता है ठीक उसी प्रकार सूक्ष्म जगत में ज्ञान के कम अधिक होने से सत रज एवं तम अवस्था बदलती रहती है अज्ञान के कारण मनुष्य तम के प्रभाव में रहता है अर्थात् अज्ञान ही दुःख का कारण होता है।

विज्ञान एवं आध्यात्म में अंतर

जैसा ऊपर बताया गया है प्रकृति में उपरोक्त तीनों गुण होते है अतः हमारे शरीर का प्रत्येक परमाणु उपरोक्त तीनों गुणो से युक्त होता है। मनुष्य के लिए दो रास्ते होते है, एक अंत की ओर जाता है दूसरा अनंत की ओर जाता है इसे हम इस प्रकार समझ सकते है हम यदि किसी भी वस्तु को ले लें एवं इसकी परतें निकालना शुरू करें तो कुछ समय बाद अंतिम परत निकालनें के बाद इसमें ईश्वर के अलावा कुछ भी शेष नहीं बचेगा यह हमारे कार्य का अंत होगा यदि हम इस पर परतें चढाना शुरू करतें है तब यदि हम अनंत काल तक भी इस कार्य को करतें रहे तब भी इसका कोई अंत नहीं आएगा। विज्ञान एवं आध्यात्म मे यही अंतर है, विज्ञान अनंत रास्ते पर चलता है तथा आध्यात्म अंत के रास्ते पर चलता है। विज्ञान स्थूल पर विश्वास करता है तो आध्यातम सूक्ष्म पर , विज्ञान जिसे ज्ञान कहता है आध्यातम उसे अज्ञान कहता है। विज्ञान का कहना है कि हमारे पूर्वज बानर थे अब हम ज्ञानवान होकर उन्नति कर रहे है, आध्यत्म का कहना है कि हमारे पूर्वज ब्रह्मज्ञानी ॠषि मुनि थे एवं अब हम अज्ञानी होकर पतन की ओर बढ रहे है। वैसे इस ब्रह्मांड में जिस चीज का जन्म होता है चाहे वह सजीव हो या निर्जीव विनाश मृत्यु की ओर ही बढती है, यह ब्रह्मसत्य है, इस सिध्दांत के अनुसार आध्यात्म का कथन सही प्रतीत होता है। विज्ञान का न तो कोई अंतिम लक्ष्य निर्धारित है न तो कोई अंतिम फल निर्धारित है, परंतु आध्यातम का अंतिम लक्ष्य भी निर्धारित है और अंतिम फल भी निर्धारित है। इसका लक्ष्य है ईश्वर से साक्षात्कार एवं फल मोक्ष है। विज्ञान का अंतिम परिणाम यही हो सकता है कि थककर या किसी गड््रढे में गिरकर विनाश। इसी तथ्य को समझकर हमारे ब्रह्यज्ञानी पूर्वजों ने अंत के रास्ते को चुना, क्योंकि अनंत के रास्ते पर चलकर जीव अनंत काल तक विभिन्न योनियों में जन्म लेता हुआ दुःख निवृति के लिए ही प्रयास करता रहेगा, तथा अंत के रास्ते पर चलकर मोक्ष प्राप्त कर ईश्वर में लीन होकर जन्म मृत्यु से छुटकारा प्राप्त कर लेगा।

सूक्ष्म जगत में प्रवेश करने का तरीका

मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियां दो प्रकार से काम करतीं हैं, एक अंर्तमुखी होकर दूसरा बहिर्मुखी होकर परंतु साधारण अवस्था में मनुष्य को यह ज्ञान नहीं हो पाता कि उसकी ज्ञानेन्द्रियां अंर्तमुखी होकर भी काम करतीं हैं। ज्ञानेन्द्रियां जब अंर्तमुखी हो जातीं हैं तब ये सूक्ष्म जगत में प्रवेश करतीं हैं साधारण अवस्था में बहिर्मुखी रहने पर इनकी आसक्ति आजीवन स्थूल जगत में ही बनी रहती है। ईश्वर ने इस प्रकार की व्यवस्था सिर्फ मनुष्य के शरीर में ही की है अन्य किसी प्राणी में नहीं अतः मनुष्य योनि में ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है अन्य किसी योनि में नहीं। ज्ञानेन्द्रियों को अंतरमुखी बनाने के लिए साधना व अभ्यास की आवश्यकता होती है। साधना दो प्रकार की होती है।
1 निष्काम साधना 2 सकाम साधना।
निष्काम साधना का उद्देश्य सिर्फ ईश्वर से साक्षात्कार एवं मोक्ष प्राप्ति होता है इसमें किसी प्रकार के भौतिक सुख संपत्ति की चाह या फल की इच्छा नहीं होती, इसमें किसी प्रकार के फल परिणाम की इच्छा रहने पर साधना में सफलता नहीं मिलती। निष्काम साधना से ही ज्ञानेन्द्रियों को अंर्तमुखी बना सकते हैं अन्य किसी प्रकार से नहीं, साधना का माध्यम ध्यान होता है चित्त की वृत्तियों को सभी विषयों से हटाकर एक लक्ष्य पर केन्द्रित करने को ध्यान कहते हैं।

ध्यान के द्वारा हमारा शरीर सूक्ष्म उर्जा प्राप्त करता है इससे हमारे शरीर में स्थित छः चक्र जाग्रत होने लगते हैं, साधारण अवस्था में ये चक्र्र सुप्तावस्था में रहते हैं परंतु निरंतर ध्यान के अभ्यास से ये जाग्रत होने लगते हैं, इनके जाग्रत होने से ज्ञानेन्द्रियां सूक्ष्म जगत में प्रवेश करतीं हैं जिससे मनुष्य की स्थूल जगत में आसक्ति कम होने लगती है एवं सूक्ष्म जगत में बढने लगती है तथा यथार्थ ज्ञान प्राप्त होने लगता है। साधना से सर्वप्रथम आत्मबल, आत्मबल से ज्ञान, ज्ञान से वैराग्य, वैराग्य से समाधि एवं समाधि से केवल्य अवस्था की प्राप्ति होती है केवल्य अवस्था में ही मनुष्य मोक्ष प्राप्त करता है। यहां वैराग्य का मतलब घर द्वार छोडक़र निर्जन स्थान में चले जाना नहीं है, स्थूल जगत में आसक्ति समाप्त हो जाना ही वास्तविक वैराग्य है इस स्थिति में मनुष्य जो भी कार्य करता है वे ईश्वर को समर्पित निष्काम भाव से होते हैं अतः इससे किसी प्रकार के कर्मफल नहीं बनते, ध्यान के लम्बे समय तक स्थिर रहने को समाधि कहते हैं, मन में सिर्फ ईश्वर का शेष बचना केवल्य अवस्था कहलाती है। यह सब कार्य गृहस्थ जीवन में भी आसानी से किए जा सकते हैं, इसके लिए प्रतिदिन दो घंटे का समय आवश्यक है। इस कार्य को सुबह 4 से 8 के बीच किया जा सकता है, इससे दैनिक कार्य किसी प्रकार भी प्रभावित नहीं होते बल्कि और अच्छी तरह सुगमता से होने लगते हैं कभी कभी तो ऐसे कार्य भी आसानी से हो जाते हैं जिनके होने की कोई उम्मीद नहीं होती। इसके लिए साधना को दिनचर्या में इतना आवश्यक बनाना होता है जितना कि प्रतिदिन भोजन आवश्यक है एक दो महीने के प्रयास से यह आवश्यक दिनचर्या में शामिल हो जाता है।

ध्यान

ध्यान के सैकडों तरीके होते हैं। इससे भ्रमित नहीं होना चाहिए जो सुगमता से किया जा सके उसे अपना लेना चाहिए। गायत्री मंत्र का जप इसका सबसे प्रभावशाली एवं आसान तरीका है, स्वस्थ सुखी एवं शांतिपूर्ण जीवन के लिए इससे अच्छा कोई दूसरा साधन इस धरती पर नहीं है, मंत्र इस प्रकार है -
ॐ भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेन्यं भर्गौ देवस्य
धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।।
जिसका अर्थ इस प्रकार है -
''सब प्राणियों के परम माता पिता ही सब जगत को उत्पन्न करने वाले ज्ञान रूप प्रकाश के देने वाले देव के उस उपासना करने योग्य शुध्द स्वरूप का हम ध्यान करते हैं, वे हमारी बुध्दियों को सन्मार्ग में प्रवृत्त करें।
मंत्र एवं इसके अर्थ को अच्छी तरह याद कर लेना चाहिए, यह इस तरह याद हो जाना चाहिए कि मंत्र के साथ मातृभाषा में अर्थ का चिंतन होता रहे क्योकि अर्थ के अनुरूप ही ध्यान करना होता है उच्चारण भी शुध्द होना चाहिए गलत उच्चारण से अर्थ बदल सकता है। मंत्र जप के समय अर्थ के अनुरूप ऐसा ध्यान करें कि सूर्य या गायत्री माता के प्रभामंडल से निकलने वाला प्रकाश हमारे शरीर के अंग प्रत्यंग में प्रवेश कर रहा है एवं इससे हमारा शरीर स्फूर्तिवान हो रहा है। जप के समय महत्व ध्यान का ही होता है , संख्या या समय पूरा करने का नहीं ध्यान की जितनी अच्छी योग्यता होगी परिणाम उतना ही अच्छा प्राप्त होगा। कुछ समय बाद जब ध्यान की योग्यता प्राप्त हो जाए तब इसी ध्यान को आज्ञाचक्र पर करना शुरू करें । इसके लिए दृढ श्रध्दा विश्वास एवं लगन का होना आवश्यक है। साधना से संबंधित संक्षिप्त नियम एवं तरीका जानने के लिए गायत्री प्रार्थना एवं विस्तृत जानकारी के लिए गायत्री महाविज्ञान नाम की पुस्तक देखें ये किताबें किसी भी गायत्री मंदिर से प्राप्त की जा सकती हैं।साधना के लिए रीढ क़ी हड्डी को सीधा रखते हुए बैठना चाहिए साधना के समय शरीर का धरती या दीवार से सीधा संपर्क न रहे यदि सीधा बैठने में किसी प्रकार की परेशानी है तब लकडी क़े तख्ते का सहारा ले सकते है। इसके साथ ही दैनिक जीवन में सात्विक आहार, सात्विक व्यवहार, एवं नियमित तथा सात्विक दिनचर्या अपनाने का अभ्यास करते रहना चाहिए। निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए
1 स्थान स्वच्छ मन के अनुकूल एवं शोरगुल रहित हो।
2
ध्यान करते समय शारीरिक या मानसिक कष्ट न हो।

स्थान की भौगोलिक स्थिति का भी बहुत महत्व होता है। इसके लिए किसी बडी नदी, बडी झील या किसी पर्वत श्रृंखला के आसपास बसे हुए स्थान अधिक उपयुक्त होते हैं परंतु समुद्री टापू या समुद्र के किनारे बसे स्थान उपयुक्त नहीं होते क्योकि समुद्र के किनारे धरती की सबसे निचली सतह होती है अतः यहां वायुमंडल में भारीपन अधिक होता है जो ध्यान के लिए उपयुक्त नहीं है जैसे जैसे हम उपर की ओर बढते जाते हैं अनुकूलता बढती जाती है इस सिध्दांत के अनुसार हिमालय पर्वत श्रृंखला एवं यहां से निकलने वाली नदियों के किनारे बसे गांव व शहर सर्वोत्तम स्थान माने जाते हैं मध्यम ऊंचाई के स्थान भी उत्तम होते हैं।

निष्काम एवं सकाम साधनाएं
निष्काम साधना के तीन मार्ग होते हैं -- 1 ज्ञान मार्ग 2 कर्म मार्ग 3 भक्ति मार्ग
ज्ञान मार्ग के दो प्रकार होते हैं _ 1 सांख्य 2 योग
सांख्य में 25 तत्व बतलाए गए हैं इनका यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर लेने से मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकता है। योग के आठ अंग बतलाए गए हैं, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि । इन दोनों में सांख्य कठिन एवं योग सरल तरीका है, इन दोनों के अंतर को इस प्रकार समझ सकते हैं, मानलो एक बडा जलाशय या समुद्र है हमें इसके तल तक पहुंचना है, इसके दो ही तरीके हो सकते हैं या तो गोता लगाकर तल तक पहुंचा जाय या पहले जल को खाली किया जाय फिर तल तक पहुंचा जाय, इस प्रकार जल को खाली करके तल तक पहुंचना सांख्य है एवं गोता लगाकर तल तक पहुंचाना योग है, इसलिए अधिकांश लोग योग को ही अपनाते हैं क्योंकि इसमें समय कम लगता है एवं सफलता मिलना निश्चित होता है। समय संबंधित व्यक्ति के स्वास्थ संसकार एवं बुध्दि के उपर निर्भर करता है। योग में बतलाए गए आठ अंग ईश्वर तक पहुंचने के लिए सीढी क़ा काम करते हैं, इसमें बिना पहली सीढी क़ो पार किए अगली सीढी पर पहुंचना असंभव है, परंतु आजकल देखा जाता है कि लोग जगह जगह ध्यान एवं योग की पाठशालाएं चलाने लगते हैं जिनका उद्देश्य या तो व्यवसायिक होता है या अपनी पहचान बनाना होता है, यह उसी प्रकार है जिस प्रकार यदि किसी बच्चे को जिसको अक्षर ज्ञान न हो और हाई स्कूल की कक्षा में बैठा दिया जाय, क्योंकि बिना यम नियम को अपनाए आसन प्राणायाम या ध्यान पर अधिकार पाना संभव नहीं है, योग में एक सीढी पर पूर्ण अधिकार प्राप्त हो जाने पर ही अगली सीढी पर पहुंचा जा सकता है।

कर्ममार्ग के अनुसार प्रत्येक वस्तु में ईश्वर की उपस्थिति को मानते हुए श्रृध्दा पूर्वक व्यवहार करना एवं निष्काम भाव से अपना कर्म करना बतलाया गया है।अपने इष्ट को निष्काम भाव से आत्मसर्मपण कर देना भक्तिमार्ग है। मनुष्य किसी भी मार्ग को अपनाए परंतु सबका आदि और अंत एक ही होता है चाहे कोई भी मार्ग हो या कोई भी धर्म हो सबको एक ही जगह ईश्वर तक पहुंचना होता है।

सकाम साधनाओं का विज्ञान निष्काम साधना से कुछ भिन्न होता है जिसके अनुसार ईश्वर सृष्टि का संचालन तीन शक्तियों द्वारा करता है इन्हें बह्मा, विष्णु एवं शिव कहते हैं इनमें ब्रह्मा का कार्य पैदा करना, विष्णु का पालन करना एवं शिव का कार्य अंत करना है प्रत्येक की लाखों शाखाएं हैं, धर्म ग्रन्थों में सात्विक, राजसिक एवं तामसिक शक्तियों को मिलाकर इन्की संख्या 33 करोड बताई गई है जिसे देवता एवं राक्षस कहते हैं एक देवता एवं राक्षस का एक विषेश गुण होता है, मनुष्य में ये सभी गुण मौजूद होते हैं हम जिस देवता की उपासना करते हैं उससे संवंधित गुणों की वृध्दि हमारे शरीर में होने लगती है परंतु इन साधनाओं में भी ध्यान की स्थिरता आवश्यक होती है बिना ध्यान में सिध्दि प्राप्त किए कोई व्यक्ति इनसे किसी प्रकार का लाभ नहीं ले सकता। ये साधनाएं सात्विक, राजसिक एवं तामसिक होतीं हैं ये मंत्र, यंत्र, तंत्र, एवं योगिक क्रियाओं द्वारा की जातीं हैं प्रत्येक साधना के साथ कर्मकांड हवन पूजन आदि जुडे रहते हैं कर्मकांड का प्रभाव प्रकृति पर होता है ये साधना के लिए अनुकूल वातावरण निर्मित करते हैं। यौगिक क्रियाओं का अभ्यास कर कुछ साधुभेषधारी लोग चमत्कार दिखाकर लोगों को प्रवाहित करते एवं ठगते हैं इन चमत्कारों का ईश्वर से कोई लेना देना नहीं होता न ही इनमें किसी प्रकार की ईश्वरीय शक्ति होती है।

धर्म के विज्ञान को समझे बिना धर्म का अनुसरण करना अंधविश्वास कहलाता है, जो कि एक मानसिक बीमारी है जिसे चिकित्सा विज्ञान की भाषा में धार्मिक पागलपन कहते हैं, जिसका प्रभाव आज सांप्रदायिक झगडों के रूप में सभी देख रहे हैं। अच्छे पढे लिखे एवं उच्च वर्ग के व्यक्त्ति भी इस बीमारी से ग्रस्त होते हैं। सभी धार्मिक कर्मों का व्यवहार सूक्ष्म जगत् में होता है अतः इनमें कर्म के साथ मानसिक भावनाओं का ही महत्व होता है इसके लिए ज्ञानेन्द्रियों को अंतर्मुखी बनाना आवश्यक है। मनुष्य की स्थूल जगत् में आसक्त्ति मनुष्य को काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह रूपी पांच बंधनों में बांधती है, मनुष्य के मन में हमेशा इन पांच बंधनों से संबंधित विचार ही उत्पन्न होते रहते हैं इनमें मनुष्य की जितनी आसक्त्ति बढती है उतना ही अधिक वह दुःखी होता जाता है। इन पांच बंधनों को तोड देने अर्थात् इन पर विजय प्राप्त कर लेने से ही ईश्वर से साक्षात्कार करने का रास्ता प्राप्त होता है इन बंधनों को तोडने के लिए प्रत्येक धर्म में सैकडों तरीके बताए गए हैं।हमारे देश में रोज हजारों ज्ञानी धर्म पर प्रवचन करते हैं धार्मिक साहित्य की लाखों किताबें उपलब्ध है, लोग हमेशा प्रवचन सुनते है, धार्मिक पुस्तकें भी पढते हैं एवं समझते भी है तथा दूसरों से इस प्रकार के व्यवहार की अपेक्षा करते है परंतु स्वयं इसका अनुसरण नहीं कर पाते क्योंकि इसके लिए लंबे समय तक कठिन अभ्यास की आवश्यकता होती है। आज इस युग में मनुष्य धन को ही सुख का साधन समझता है, क्योंकि आत्मनिर्भरता बिल्कुल समाप्त हो चुकी है, मनुष्य आज छोटी से छोटी चीज के लिए दूसरे पर निर्भर है, मनुष्य की इसी कमजोरी का फायदा उठाकर पूंजीपति मनुष्य के श्रम का लगभग 80 प्रतिशत् भाग ले लेते है। धन से मनुष्य भौतिक सुख प्राप्त कर सकता है परंतु उसे मानसिक आध्यात्मिक सुख प्राप्त नहीं हो सकता, मानसिक सुख प्राप्त करने के लिए स्थूल जगत् में आसक्ति को समाप्त कर सूक्ष्म जगत् में बढाना होता है। जो मनुष्य एक बार आध्यात्मिक सुख का अनुभव कर लेता है उसके लिए भौतिक सुख किसी काम का नहीं होता, परंतु आज स्थूल जगत् में आसक्त्त मनुष्य यदि ईश्वर का नाम भी लेता है तो उसमें भी उसका स्वार्थ छिपा होता है, जबकि स्वार्थ का इस क्षेत्र से कोइ संबंध नहीं है।