Thursday, May 19, 2011

दिव्य ईश्वरीय प्रेम


सामान्यत: जो लोग देहात्मबुद्धि में आसक्त होते हैं, वे भौतिकतावाद में लीन रहते हैं.
उनके लिए यह समझ पाना असम्भव सा है कि परमात्मा व्यक्ति भी हो सकता है. ऐसे भौतिकतावादी इसकी कल्पना तक नहीं कर पाते कि ऐसा भी दिव्य शरीर है जो नित्य तथा सच्चिदानन्दमय है. भौतिकतावादी धारणा के अनुसार शरीर नाशवान, अज्ञानमय तथा अत्यन्त दुखमय होता है. अत: जब लोगों को भगवान के साकार रूप के विषय में बताया जाता है तो उनके मन में शरीर की यही धारणा बनी रहती है. ऐसे भौतिकतावादी पुरुषों के लिए विराट भौतिक जगत का स्वरूप ही परम तत्व है. फलस्वरूप वे परमेश्वर को निराकार मानते हैं और भौतिकता में इतने तल्लीन रहते हैं कि भौतिक पदार्थ से मुक्ति के बाद भी अपना स्वरूप बनाये रखने के विचार से डरते हैं.

जब उन्हें बताया जाता है कि आध्यात्मिक जीवन भी व्यक्तिगत तथा साकार होता है तो वे पुन: व्यक्ति बनने से भयभीत हो उठते हैं. फलत: निराकार शून्य में तदाकार होना पसंद करते हैं. सामान्यत: वे जीवों की तुलना समुद्र के बुलबुलों से करते हैं, जो टूटने पर समुद्र में ही लीन हो जाते हैं. यह जीवन की भयावह अवस्था है जो आध्यात्मिक जीवन के पूर्णज्ञान से रहित है. इसके अतिरिक्त बहुत से मनुष्य आध्यात्मिक जीवन को तनिक भी नहीं समझ पाते. अनेक वादों तथा दार्शनिक चिंतन की विविध विसंगतियों से परेशान होकर वे ऊब या क्रुद्ध हो जाते हैं और मूर्खतावश निष्कर्ष निकालते हैं कि परम कारण जैसा कुछ नहीं है, अत: प्रत्येक वस्तु अन्ततोगत्वा शून्य है. ऐसे लोग जीवन की रुग्णावस्था में होते हैं.

मनुष्य को भौतिक जगत के प्रति आसक्ति की तीनों अवस्थाओं से छुटकारा पाना होता है- ये हैं आध्यात्मिक जीवन की उपेक्षा, आध्यात्मिक साकार रूप का भय तथा जीवन की हताशा से उत्पन्न शून्यवाद की कल्पना. जीवन की तीनों अवस्थाओं से छुटकारा पाने के लिए प्रामाणिक गुरु के निर्देशन में भगवान की शरण ग्रहण करना और भक्तिमय जीवन के नियम तथा विधि-विधानों का पालन आवश्यक है. भक्तिमय जीवन की अन्तिम अवस्था भाव या दिव्य ईश्वरीय प्रेम कहलाती है.
 


  स्वामी प्रभुपाद
('श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप" से साभार)